कक्षा – 9 ‘अ’ क्षितिज भाग 1 पाठ 1
साखियाँ एवं सबद- कबीर
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कबीर की “साखियाँ” का संक्षिप्त सारांश (Kabir Das Sakhi Summary in Hindi) :-
यहाँ संकलित साखियों में कबीर जी ने जहाँ एक ओर प्रेम की महत्ता का गुण गान काफी बढ़ चढ़कर किया है वहीँ दूसरी और उन्होंने एक आदर्श संत के लक्षणों से हमें अवगत कराया है। उन्होंने संत के गुणों को बताते हुए ये कहा है की सच्चा संत वही है जो धर्म, जाती आदि पर विस्वास नहीं करता। उनके अनुसार इस सम्पूर्ण जगत में ज्ञान से बढ़ कर और कुछ भी नहीं है। उन्होंने ज्ञान की महिमा के बारे में बताते हुए कहा है की कोई भी अपनी जाती या काम से छोटा बड़ा नहीं होता बल्कि अपने ज्ञान से होता है। उन्होंने अपने साखियों में उस समय समाज में फैले अंधविस्वास तथा अन्य त्रुटियों का खुल कर विरोध किया है।
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कबीर के दोहे “सबद” का संक्षिप्त सारांश (Kabir Das Sabad Summary in Hindi) :-
अपने पहले सबद में कबीर ने जहाँ एक और उस समय समाज में चल रहे विभिन्न आडम्बरों का विरोध किया है वहीँ दूसरी और हमें इस्वर को खोजने का सही रास्ता दिखाया है। उनका मानना है की इस्वर मंदिर मस्जिद में नहीं बल्कि खुद हमारे अंदर बस्ते हैं।
अपने दूसरे सबद में कबीर ने ज्ञान की आँधी से होने बाले बदलावों के बारे में बताया है। कवि का कहना है कि जब ज्ञान की आँधी आती है तो भ्रम की दीवार टूट जाती है और मोहमाया के बंधन खुल जाते हैं।
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कबीर की साखी अर्थ सहित – Kabir Das Sakhi Summary in Hindi
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं।1।
भावार्थ :- कबीर दास जी अपने इस दोहे में हमें यह बताना चाहते हैं की प्रभु भक्ति में ही मुक्ति का मार्ग है और उसी में हमें परम आनंद की प्राप्ति होगी। उन्होंने इस दोहे में हंसो का उदहारण देते हुए हमें यह बताया है की जिस तरह हंस मानसरोवर के जल में क्रीड़ा करते हुए मोती चुग रहे हैं और उन्हें इस क्रीड़ा में इतना आंनद आ रहा है की वो इसे छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहते। उसी तरह जब मनुष्य इस्वर भक्ति में खुद को लीन करके परम मोक्ष की प्राप्ति करेगा तो मनुष्य को इस मार्ग में अर्थात प्रभु भक्ति में इतना आनंद आएगा की वह इस मार्ग को छोड़कर कहीं और नहीं जायेगा और निरंतर प्रभु भक्ति में लगा रहेगा।
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प्रेमी ढ़ूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।2।
भावार्थ :- इस दोहे में कबीर दास जी ने दो भक्तो के आपसी प्रेम भावना के बारे में बतया है। कवि के अनुसार जब दो सच्चे प्रभु भक्त आपस में मिलते हैं तो उनके बिच को भेद-भाव, ऊंच-नीच, क्लेश इत्यादि विश रूपी दुर्भावनाएँ नहीं होती। इस तरह पाप भी पुण्य में परिवर्तित हो जाता है लेकिन यह होना अर्थात एक सच्चे भक्त की दूसरे सच्चे भक्त से मिलन होना बहुत ही दुर्लभ है। इसीलिए कवि ने अपने दोहे में लिखा है की “प्रेमी ढ़ूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।”
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हस्ती चढ़िये ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।3।
भावार्थ :- कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में हमें संसार के द्वारा की जाने वाली निंदा की परवाह किये बिना ज्ञान के मार्ग में चलने का सन्देश किया है। उनके अनुसार जिस तरह जब हाथी चलते हुए किसी गली मोहल्ले से पार होता है तो गली के कुत्ते वर्थ ही भोंकना सुरु कर देते हैं। जब उनकी भोंकने से कुछ बदलता नहीं है और इसी वजह से हाथी उनके भोंकने को अनसुना कर बिना किसी प्रतिक्रिया के स्वाभाविक रूप से सीधा अपने मार्ग चलते जाता है। उसी तरह कवि चाहते हैं की हम अपने ज्ञान रूपी हाथी में सवार होकर इस समाज की निंदा की परवाह किये बिना निरंतर भक्ति के मार्ग में चलते रहे। क्यूंकि जब भी आप कोई ऐसा काम करने जायँगे जो साधारण मनुष्य के लिए कठिन हो या फिर कुछ अलग है तो आपके आस पड़ोस के लोग ये समाज आपको ऐसी ही बाते कहेंगे जिससे आपका मनोबल कमजोर हो जाए इसीलिए कवि चाहते हैं की हम इन बातो को अनसुना कर अपने कर्म पर ध्यान दे।
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निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।4।
भावार्थ :- इस दोहे में कवि ने हमें एक दूसरे से तुलना करने की भावना को त्यागने का सन्देश दिया है। उनके अनुसार हम प्रभु भक्ति के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति तभी कर सकते हैं जब हम बिना किसी तर्क के निष्पक्ष होकर प्रभु की भक्ति करें। उनके अनुसार समाज में चारो तरफ केवल भेद भाव ही व्याप्त है। एक वयक्ति दूसरे को छोटा या अछूत समझता है। या उसकी धर्म को अपने धर्म से ख़राब समझता है। और इसी वजह से हम सच्चे मन से प्रभु की भक्ति नहीं कर पा रहे हैं और फलस्वरूप हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो रही है। कवि का कहना है की प्रभु- भक्ति के लिए हमें इन भेद भाव से ऊपर उठ कर निष्पक्ष मन से भक्ति करनी होगी तभी हमारा कल्याण हो सकता है।
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हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाई।
कहै कबीर सो जीवता, जे दुहुँ के निकटि न जाइ।5।
भावार्थ :- प्रस्तुत दोहे में कवि ने हिन्दू-मुस्लिम के आपसी भेद भाव का वर्णन किया है। कवि के अनुसार हिन्दू तथा मुसलमानो में एक दूसरे के प्रति काफी द्वेष था। वे एक दूसरे से घृणा करते थे और यही कारण है की हिन्दू राम को महान समझते थे जबकि मुसलमान खुदा को लेकिन दोनों राम और खुदा का नाम लेकर भी अपने इस्वर को प्राप्त नहीं कर सके क्युकी उनके मन में आपसी भेदभाव और कट्टरपँति थी। कवि के अनुसार हिन्दू मुस्लिम दोनों एक है और राम-खुदा दोनों इस्वर के ही रूप है। इसलिए हमें आपसी भेदभाव को छोड़कर सर्वश्रेस्ठ इस्वर फिर चाहे वो राम हो या फिर खुदा की भक्ति में लीन हो जाना चाहिए। तभी हम मोक्ष को प्राप्त कर पाएंगे।
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काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।6।
भावार्थ :- प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने हिन्दू – मुसलमान के आपसी भेदभाव को नष्ट करने का सन्देश दिया है। कवि का मानना है की अगर कोई हिन्दू या मुसलमान आपसी भेदभाव को छोड़कर निष्पक्ष होकर प्रभु भक्ति में लीन हो जाए तो उन्हें मंदिर-मस्जिद एक समान लगने लगेंगे। फिर उन्हें राम तथा रहीम दोनों एक ही इस्वर के रूप लगेंगे। जिनमे कोई अंतर नहीं होगा। और इस प्रकार तब हिन्दू तथा मुसलमानो को मस्जिद तथा मंदिर भी पवित्र लगने लगेंगे। जैसे जब तक गेहूं को पिसा नहीं जाता वो खाने योग्य नहीं होता है लेकिन जैसे ही गेंहू को पीस दिया जाता है वो आटा एवं मैदे की तरह महीन हो जाता है और वह आसानी से खाने योग्य बन जाता है ठीक उसी तरह जब तक हमारे मन में एक दूसरे के प्रति भेद भाव रहेगा हमें दुसरो को धर्म में बुराइयाँ दिखती रहेंगी। लेकिन जैसे ही हम निष्पक्ष होंगे। हमें सभी धर्मो में केवल प्रभु की भक्ति का सन्देश प्राप्त होगा फिर चाहे वो काबा हो या फिर कासी।
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उँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होई।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोई।7।
भावार्थ :- अपने प्रस्तुत दोहे में संत कवि कबीर दास जी ने मनुष्य को बुरे कर्मो से बचने की प्रेरणा दी है। उनके अनुसार अगर कोई वयक्ति अपने कुल से नहीं बल्कि अपने कर्मो से बड़ा होता है। जिस तरह अगर एक सोने के घड़े में मदिरा भरी हो तो वह किसी साधु के लिए मूलयहीन हो जाती है। सोना का बना होने पर भी उसका कोई महत्व नहीं रहता। ठीक उसी प्रकार बड़े कुल में पैदा होकर अगर किस वयक्ति में बुराइयाँ, भेद भाव की भावना इत्यादि वयाप्त हो तो वह वयक्ति महान नहीं बन सकता। इसलिए हमें किसी मनुष्य को उसके कुल से नहीं उसके कर्म से पहचानना चाहिए।
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कबीर के दोहे “सबद”
मोकों कहाँ ढ़ूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसो की स्वाँस में।।
भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मनुष्य को यह सन्देश दिया है की ईश्वर को मंदिर या मस्जिद में ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है क्युकिं वह प्रत्येक मनुष्य के स्वांसो अर्थात कण कण में बसा हुआ है उसे कहीं बहार खोजने की जरूरत नहीं है। कवि के इन पंक्तियों में इस्वर मनुष्य से कहते हैं की हे मनुष्य तम मुझे बहार कहाँ ढूंढ़ते फिर रहे हो, मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ। मैं न ही किसी मंदिर में हूँ और न ही किसी कैलाश में और न ही मई काबा में हूँ और न ही मैं कासी में हूँ। यहाँ पर कवि ने हिन्दू तथा मुसलमानो को सन्देश देते हुए मंदिर एवं मस्जिद का उदहारण दिया है। आगे इस्वर कहते हैं तम मुझे न ही किसी क्रिया क्रम अर्थात पूजा पाठ, नमाज इत्यादि से प्राप्त कर सकते हो और न ही तम मुझे वैराग्य यानी किसी योग साधना से प्राप्त कर सकते हो। अगर इन सभी बाहरी जगहों को छोड़कर खुद के भीतर झाँको को मैं तम्हे पल भर खोजने में ही मिल सकता हूँ। और अंतिम लाइनों में कवि सभी भक्तो को यही संदेश देते हैं की परमात्मा हमारे अंदर ही बसा हुआ है वह हमारे कण कण में है इसलिए उसे खोजने के लिए हमें बाहरी आडम्बरो को छोड़कर खुद के अन्तःमन को टटोलने की आवशयकता है।
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संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी॥
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा।।
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ॥
भावार्थ :- कबीर दास जी ने अपने प्रस्तुत पद में हमें यह शिक्षा दी है की सांसारिक मोहमाया, स्वार्थ, धनलिप्सा, तृष्णा, कुबुद्धि इत्यादि मनुष्य में तभी तक मौजूद रहती है जब तक उसे आध्यात्मिक ज्ञान नहीं मिल जाता। जैसे ही मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है उसके अंदर स्तिथ सारी सांसारिक वासनाओं का अंत हो जाता है। यहाँ कवि कहते हैं की जब ज्ञान की आंधी आती है तो भ्रम रूपी बांस की टट्टरों को माया रूपी रसियाँ बाँध कर नहीं रख पाती और बांस की टट्टरें इस ज्ञान की आंधी में उड़ जाती है। स्वार्थ और धन लाभ रूपी खम्बे जो छत को सहारा देते हैं दोनों गिर चुकी हैं और इसी कारण वश मोह रूपी छत की बल्लियाँ भी गिर गई हैं। छत को सहारा देने वाले खम्बे और बल्लियाँ के गिर जाने से तृष्णा रूपी छत भी धरती पर आकर गिर गया है। और इस प्रकार जब सब गिरने लगे तो घर अर्थात मनुष्य के अंदर कुबुद्धि रूपी बर्तन स्वयं ही टूटने लगे।
इसके उपरांत संतो ने अपने योग साधना की युक्तियों से एक बहुत ही मजबूत छत का निर्माण किया है जिससे पानी की एक बून्द भी नहीं टपकती है। अर्थात जिसमे मनुष्य को भटकने के लिए कोई राह नहीं है केवल एक ही राह है और वह है अध्यात्म का। इस प्रकार जब हम हरि इस्वर के रहस्य को जानेंगे तो हमारे अंदर स्थित सारे छल कपट का अंत हो जायेगा और हम इस ज्ञान की अंधी में होने वाले भक्ति रूपी वर्षा में खुद को भीगा हुआ पाएंगे। कबीर के अनुसार जब ज्ञान रूपी सूर्य उदय होता है तो हमारे अंदर स्थित सारे अन्धकार का अंत हो जाता है।
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